मैं हैरान हूँ तुम्हे यूं जिंदा देख के,
ग़म के दरवाज़े पे यह पहरा देख के।
चेहेकती हो तो मेरे दिल की धड़कन थमे,
पर तड़पती भी हो तो खूबसूरत हो तुम।
कभी पास से और कभी दूर से,
देखा है मैंने तुम्हे हर ओर से;
दोज़ख में सिसकियाँ भरती रही,
ख्वाब जन्नत के ही मगर देखती थी तुम।
सब कहते थे मुझको की मेरी हो तुम,
पर गैर सी सदा मुझको लगती हो तुम।
कोई अपना यूं दर्द में हँसता है भला?
क्या कहता है की यह तो बस एक इम्तिहान था?
सब हार के मैं थोडा थक सा गया हूँ,
और तुम कहती हो मुझको मैं कामयाब हूँ?
मेरी आँखों में तो अब आंसूं भी नहीं,
ज़िन्दगी, तुम मगर यूं हंसती हो क्यूं?
Saturday, January 21, 2012
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1 comment:
Wah Ji Wah, kiya baat hai!
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